Tuesday, March 9, 2010

अल्फाजों का आशियाना



चाँद की चाँदनी में भी मेरा साथ बेगाना लगता है |
पहले मेरी आँखें मरहम और अब छुअन भी अनजाना लगता है ||

साहिल से दूर समंदर सा पीर अपना आशियाना लगता है |
प्यार की राहों में एक कंकड़ भी परवाना लगता है |

जिस हँसी कों बेताबी से देखा करती थी वो |
अब वही खुशी क्यों गम का फ़साना लगता है ||

शिकवा है मुझसे खुशी ना दे पायी पूरी |
पता है शायद उन्हें खुश होने में मुझे एक ज़माना लगता है ||

अल्फाजों और जुमलों में क्या बयाँ करूं|
अब इन बिखरे शब्दों कों पिरोना भी काम पुराना लगता है ||

4 comments:

Unknown said...

If i tell u the truth.............then ....i have no words to express my feelings that how lovely it is!!!.... it is not only urs but mine also.

Anonymous said...

superb!!! bahut umdaa!!

ek-ek sher behtareen hai par antim waali bemisaal..

Unknown said...

shukriyaa Raahul babu aapke shabd hi meri lekhni ko majbooti pradaan karte hai

शशि "सागर" said...

शब्दों कों पिरोना भी काम पुराना लगता है...waah majaa aa gaya...kya kaha hai aapne.
bahut sundar rachanaa.

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails