Friday, October 22, 2010

आपके लिए !

ये न दिल का दर्द है, न दिल की आवाज ,अफसानों के आँगन में बैठ कर यादों के झरोखे से जब बाहर की दुनिया देखता हूँ तो भाव बर्बश बोल बन जाते हैं।


तन्हाई के साये हैं और आँख मिचौली करती जिन्दगी .
रूठ गया न अब तक माना मैं कैसे करूं उसकी बन्दगी .

पत्थर नहीं इंसान हैं हम कैसे सहें उनके ये सितम.
अल्फाजों का अब क्या कहना,क्या ये बन पायेंगे मरहम .

बीते पल को याद करूं ,वो याद ही बन जाते हैं गम.
घर भी अब सूना लगता है , जब छत पड़ जाते है कम.

मान लिया था खुदा उसे जिसकी कभी न की खुदाई .
पीड पडाई देखी थी ,अब सहनी पड़ेगी हमें भी जुदाई .

Wednesday, October 20, 2010

आईडेनटिटी क्राइसिस !

इंसान नाटक के एक पात्र की तरह है ,ये दुनिया एक रंगमंच , जिन्दगी के रंगमंच पर उसे बस अपनी भूमिका निभाने के लिए भेज दिया जाता है| मानव-जीवन की इन सात भूमिकाओं में वो कब कहाँ और कितना फिट बैठता है ,ये वो खुद तय करता है | नवजात शिशु से लेकर दूसरे बचपन तक की कहानी में कई ऐसे मोड़ या पडाव आते हैं, जब वो थककर बैठता है चलता है, मंजिल तक पहुचने की अथक कोशिश और अंततोगत्वा एक दिन सब कुछ समाप्त |

लिखने की कोशिश रोज करता हूँ लेकिन कभी कुछ लिख नहीं पाया , कारण का पता नहीं चला | गंभीरता से लिखना पढ़ना मेरे बस की बात नहीं और इस अमूल्य जीवन या फिर इनके उद्देश्यों को लेकर मैं कभी गंभीर नहीं हुआ |

बचपन के दिनों की एक कविता याद आ रही है

"ये जीवन क्या है निर्झर है ,देखो बहता ही जाता है |
रूक जाना ही मर जाना है ,देखो यह झड़कर कहता है ||"

उन दिनों वर्ग में शिक्षक ने आशय समझाए थे, लेकिन ना उतनी गंभीरता से इसे मै ने समझने की कोशिश की थी ,और ना ही ज्यादे गंभीरता से लिया था | जीवन के चौबीस बसंत पार कर चुका हूँ | अब इनके आशय , मायने और भावार्थ प्रायोगिक तौर पर समझने का मौक़ा मिल रहा है | एक अबाध गति से चली अ रही जिन्दगी में ना कोई कोमा लगा ना ही पूर्ण विराम | उन पलों को याद करो तो मानो ऐसा लगता है मानो कितने अच्छे पल थे वो जिन्हें मैं जी गया | क्या वो कभी लौट पायेंगे ! इंसान रहता वर्तमान में है लेकिन वो जीता उन यादों के कारण है और शायद यह जीवन का यथार्थ है |

इंसान हमेशा शब्दों की सीढी या बैशाखी के सहारे खुद को अभिव्यक्त करने की कोशिश करता है ,लेकिन शब्द जिनका कोई अस्तित्व नहीं ,वो किसी को क्या अभिव्यक्त करेंगे | वो इस शब्द रूपी माया जाल में फसकर निरंतर अपने पहचान के लिए लड़ता है, अकारण , जिसकी न कोई वजह है ,और ना ही कोई परिणाम |

लोग अपने ऊपर किताब लिख बैठते हैं, खूब बिकती भी है और अच्छी कमाई भी हो जाती है , मैं सिर्फ ये समझने की कोशिश करता हूँ कि खुद पर लिखने की क्या जरूरत है मैं जो हूँ वो हूँ ! शब्द थोड़े कटु हो सकते हैं ,लेकिन सच यही है कि मनुष्य स्वभाव्बश खुद की आईडेनटिटी क्राइसिस से जूझने कि प्रक्रिया से कभी बाहर नहीं आ पाता है | जब तक वो अपनी अंतिम सांस ना ले पाए|

मैं किसी का बेटा हूँ , तो किसी का भाई , किसी का बाप हूँ तो किसी का प्यार आखिर इन्ही चन्द उधार के अल्फाजों में पहचान सिमट जाती है | इंसान की सबसे बड़ी पहचान तो यह है कि वो इंसान है ,फिर उसके नाम गांधी हो या बुद्ध ,विवेकानंद हो या शेक्सपियर | दुःख की बात तो यह है कि यहाँ इंसान की कमी है | बैर ,बैमनस्यता, द्वेष और ना जाने क्या क्या इनके गुण हैं और दुसरे को कुचलना जैसे इनकी प्रथा |

जीवन की इस आपा धापी में हम खुद को भूलकर को बस अपने गंतव्य और मंजिल को तलाशने में लग जाते हैं |खुद को शिखर पर देखने की तमन्ना न जाने हम से क्या क्या नहीं करवाती है | अगर हम अपनी लेखनी को मौन रख लें तो क्या अभिवयक्ति नहीं हो सकती है|

Tuesday, October 12, 2010

कॉमन वेल्थ का कॉमन हाल !




पड्सों रात दोस्त से उधार माँगी टी .वी पर भारत-पाकिस्तान का हॉकी मैच देख रहा था ,स्टेडियम दर्शकों से भरा था , कुछ नामचीन राजनीतिक हस्तियाँ भी थी, जिसमे सोनिया गांधी अपने बेटे राहुल के साथ खिलाड़ियों की हौसला आफजाई कर रहे थे |आलोचनाओं के एक लम्बे दौर के बाद खिलाड़ियों का शायद उत्साह बढ़ा होगा की आखिर देश का राष्ट्रीय खेल आज भी कहीं कहीं जीवित है | वो अखबार वाले हों या कैमरे वाले सब ने खेल से पहले इस आयोजन की धज्जियाँ उडाई और अभी भी प्रयासरत हैं| मौका मिला नहीं की बस शुरू हो जाते हैं|लेकिन अब इनकी वाहवाही भी कर रहे हैं|

देश की अखंडता और एकता का प्रदर्शन ८० करोड़ के गुब्बारे पर देख कर कोई भी मंत्रमुग्ध हो जाए |आलोचनाओं ने तो कलमाडी को इतना परेशान कर दिया की 'प्रिंस चार्ल्स' को वो 'प्रिंस डायना'कह बैठे , सही मायने में इस मीडिया वालों ने तो बेचारे का जीना हराम कर दिया है | फ्रस्टेशन के शिकार बेचारे अब मीडिया से दूर भाग रहे हैं |कलमाडी जी मैं आपके साथ हूँ ,खिलाड़ी को अब मेडल मिल रहे हैं तो अब मीडिया वाले भी देश को खेल जगत में एक उभरता हुआ राष्ट्र बताने में पीछे क्यों हटें वरना उनकी टी.आर.पी. गिर जाए |

विदेशी मीडिया ने भी कभी मजाक उड़ाया तो कभी सराहना की |इस खेल से भारत को क्या मिला है या क्या मिलेगा ये अभी भी मेरी समझ से पड़े है |खिलाड़ी अब गुस्सा मत हो जाएगा ,क्योंकि मैं भी इस देश का आम आदमी हूँ, इस लिए ऐसा बोल रहा हूँ |शरद पवार जी गोदामों में अनाज सड़ा रहे हैं और दूसरी तरफ देश एक नयी अर्थव्यवस्था के रूप में उभर रहा है की अब तो भैया ओलम्पिक की दावेदारी ठोकेंगे |उन मजदूरों का क्या हुआ जिन्होंने दिन रात काम कर इस आयोजन को शायद सफल बनाने में आज भी लगे हैं |

स्टेडियम खाली है लेकिन टिकट बिक चुके हैं |खिलाड़ी गोल्ड मेडल जीत जाते हैं लेकिन कोई उनके लिए ताली बजाने वाला भी नहीं हैं ,अरे भैया मेरी समझ में तो ये नहीं रहा है की दिल्ली की इतनी आबादी में किसी को फुर्सत है पैसे | जिनसे उम्मीदे थी वो फिसड्डी साबित हुए वो सानिया हों या सायना विजेंदर हों या कोई और|खेल अगर सफल होता है तो इसका बहुत श्रेय "देलही यूनाइटेड" के बैनर तले काम कर रहे उन तमाम वोलेंटेयर या फिर इंडो तिब्बतियन बोर्डर पुलिस के उन अर्ध सैनिक बालों को जाता है जिन्होंने भूखे पेट रहकर भी देश की इज्जत और गरिमा को सकारात्मक ढंग से सामने रखा है |

बहरहाल खेल का आगाज अच्छा हुआ था और इसका अंजाम भी अच्छा ही होगा , विश्लेषण ,व्यंग ,आलेख , सम्पादकीय फिर लिखे जायेंगे और किये जायेंगे लेकिन इस खेल का खेल कुछ जांच समितियों के फाइलों में बंद हो जाएगा|भ्रष्ट और भ्रष्टाचार पर फिर आलेख लिखे और कार्यक्रम दिखाए जायेंगे |या फिर राखी सावंत के शो में कलमाडी जी इन्साफ के तराजू पर तौले जायंगे ये तो आने वाला वक़्त बतायेगा|



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