Wednesday, October 20, 2010

आईडेनटिटी क्राइसिस !

इंसान नाटक के एक पात्र की तरह है ,ये दुनिया एक रंगमंच , जिन्दगी के रंगमंच पर उसे बस अपनी भूमिका निभाने के लिए भेज दिया जाता है| मानव-जीवन की इन सात भूमिकाओं में वो कब कहाँ और कितना फिट बैठता है ,ये वो खुद तय करता है | नवजात शिशु से लेकर दूसरे बचपन तक की कहानी में कई ऐसे मोड़ या पडाव आते हैं, जब वो थककर बैठता है चलता है, मंजिल तक पहुचने की अथक कोशिश और अंततोगत्वा एक दिन सब कुछ समाप्त |

लिखने की कोशिश रोज करता हूँ लेकिन कभी कुछ लिख नहीं पाया , कारण का पता नहीं चला | गंभीरता से लिखना पढ़ना मेरे बस की बात नहीं और इस अमूल्य जीवन या फिर इनके उद्देश्यों को लेकर मैं कभी गंभीर नहीं हुआ |

बचपन के दिनों की एक कविता याद आ रही है

"ये जीवन क्या है निर्झर है ,देखो बहता ही जाता है |
रूक जाना ही मर जाना है ,देखो यह झड़कर कहता है ||"

उन दिनों वर्ग में शिक्षक ने आशय समझाए थे, लेकिन ना उतनी गंभीरता से इसे मै ने समझने की कोशिश की थी ,और ना ही ज्यादे गंभीरता से लिया था | जीवन के चौबीस बसंत पार कर चुका हूँ | अब इनके आशय , मायने और भावार्थ प्रायोगिक तौर पर समझने का मौक़ा मिल रहा है | एक अबाध गति से चली अ रही जिन्दगी में ना कोई कोमा लगा ना ही पूर्ण विराम | उन पलों को याद करो तो मानो ऐसा लगता है मानो कितने अच्छे पल थे वो जिन्हें मैं जी गया | क्या वो कभी लौट पायेंगे ! इंसान रहता वर्तमान में है लेकिन वो जीता उन यादों के कारण है और शायद यह जीवन का यथार्थ है |

इंसान हमेशा शब्दों की सीढी या बैशाखी के सहारे खुद को अभिव्यक्त करने की कोशिश करता है ,लेकिन शब्द जिनका कोई अस्तित्व नहीं ,वो किसी को क्या अभिव्यक्त करेंगे | वो इस शब्द रूपी माया जाल में फसकर निरंतर अपने पहचान के लिए लड़ता है, अकारण , जिसकी न कोई वजह है ,और ना ही कोई परिणाम |

लोग अपने ऊपर किताब लिख बैठते हैं, खूब बिकती भी है और अच्छी कमाई भी हो जाती है , मैं सिर्फ ये समझने की कोशिश करता हूँ कि खुद पर लिखने की क्या जरूरत है मैं जो हूँ वो हूँ ! शब्द थोड़े कटु हो सकते हैं ,लेकिन सच यही है कि मनुष्य स्वभाव्बश खुद की आईडेनटिटी क्राइसिस से जूझने कि प्रक्रिया से कभी बाहर नहीं आ पाता है | जब तक वो अपनी अंतिम सांस ना ले पाए|

मैं किसी का बेटा हूँ , तो किसी का भाई , किसी का बाप हूँ तो किसी का प्यार आखिर इन्ही चन्द उधार के अल्फाजों में पहचान सिमट जाती है | इंसान की सबसे बड़ी पहचान तो यह है कि वो इंसान है ,फिर उसके नाम गांधी हो या बुद्ध ,विवेकानंद हो या शेक्सपियर | दुःख की बात तो यह है कि यहाँ इंसान की कमी है | बैर ,बैमनस्यता, द्वेष और ना जाने क्या क्या इनके गुण हैं और दुसरे को कुचलना जैसे इनकी प्रथा |

जीवन की इस आपा धापी में हम खुद को भूलकर को बस अपने गंतव्य और मंजिल को तलाशने में लग जाते हैं |खुद को शिखर पर देखने की तमन्ना न जाने हम से क्या क्या नहीं करवाती है | अगर हम अपनी लेखनी को मौन रख लें तो क्या अभिवयक्ति नहीं हो सकती है|

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