Friday, September 4, 2015

एक शिक्षक होने का सुख !!!

2006 में अपने कमरे में छात्रों को पढ़ाते हुए 
बीते सोमवार सप्ताहांत की छुट्टी में कमरा साफ करते हुए कुछ पुरानी तस्वीरें हाथ लगी, कुछ यादें जिसे सहेज कर रखने की आदत है मेरी।

सालों पहले कभी डायरी लिखने की आदत थी, उनके पन्ने पलटकर जब देखने का मौका मिला तो लगा जिंदगी के बेहतरीन पलों को पीछे छोड़ मैं भी 'शहर' हो चला हूँ।

मध्यमवर्गीय परिवार से होने की वजह से छात्र जीवन की अपनी कुछ सीमाएं थी। उन सीमाओं के साथ वाली पगडंडियों पर चलकर रोजगार के सिलसिले में दिल्ली आ गया।

जीवन के कई बसंत बीत गए। कुछ चीजें ऐसी हैं जो आज भी दिल और मन को रोमांचित कर देती है, एक शिक्षक होना और "शिक्षक होने का सुख" इसी कड़ी में जीवन के साथ जुड़ गया, जिसकी स्मृतियां अविस्मरणीय हैं। हालांकि ये सफर मेरे लिए आसान नहीं रहा है पर अतीत चाहे कितना ही संघर्षशील क्यों ना हो उसकी स्मृतियां सदैव मधुर होती है।

उन सभी छात्रों का शुक्रिया जिनकी वजह से मैं शिक्षक बन पाया, मैं एक अच्छा बोलक्कर बन गया और अटूट निश्छल प्रेम और स्नेह मिला। पता नहीं क्यों लेकिन आज उनके बारे में लिखने का दिल कर रहा है। यादों के साये सच में साथ ही होते हैं।

मेरे सबसे पहले शिक्षक मेरी माँ और दादा (बाबूजी) हमेशा से मेरे प्रेरणास्त्रोत रहे हैं जिन्होंने मुझे एक बेहतर इंसान बनाने के लिए अपनी जिंदगी खपा दी। उनको ये दिन समर्पित। इस सफर में मुझे लगभग 6 सालों तक एक शिक्षक के जीवन जीने का सौभाग्य मिला। इसकी भी कहानी एक सामान्य किसान परिवार के लड़के के लिए किसी रोमांच से कम नही है।

NDA की फाइनल परीक्षा में सफल ना होने की वजह से दादा ने डांटकर कहा अब आप अपनी पढ़ाई का जिम्मा उठाओ। ट्यूशन पढ़ाना उस समय मेरी मजबूरी थी। 2002 में BSA की 24 इंच वाली साइकिल चलाकर 250 रूपए के लिए पढ़ाया वो पहला होम ट्यूशन और वो छात्र याद आ रहा है। मैं उस छात्र का सबसे बढ़िया दोस्त था, वह मेरे साथ खूब मस्ती करता था और यहीं से शुरू हुआ मेरे शिक्षक बनने का सफर। कालांतर में इस जीवन से प्रेम हो गया। इसे खूब जिया, खूब पढ़ाया, (17-18 की उम्र में ही ) बच्चों से खूब सम्मान पाया।

दादा की नसीहतें साथ में थी की शिक्षा दान की चीज है सो जहाँ तक संभव हो सका इस आर्थिक युग में इसे दान करने से गुरेज नही किया। उस आर्थिक रूप से विपन्न छात्रों की प्रतिभा का आज भी कायल हूँ।

होम ट्यूशन का सफर एक कोचिंग तक पहुँच गया था, छात्रों की संख्या बढ़ गयी थी और जिम्मेदारी का भाव भी। यहां से मेरे जीवन में एक नया मोड़ आया जब मेरा चयन BHU में फ्रेंच भाषा से स्नातक के लिए हुआ था, लेकिन किसी खास वजह से दाखिला नहीं ले पाया। मेरे छात्र मेरे इस चयन पर दुखी थे लेकिन जब उन्हें पता चला कि मैं नहीं जा रहा हूँ तो उनके चेहरे की खुशी मेरे दाखिला ना ले पाने के गम पर भारी पड़ गया।

आज जब नयी पीढ़ी के छात्र-शिक्षक संबंध बदल रहे हैं। शिक्षकों की गुणवत्ता में बदलाव आ रहे हैं तो मुझे वो वाकया याद आ रहा है जब  वर्ष 2005-06, अगस्त माह की 13 तारीख थी, पूरी रात जोरदार बारिश हुई, सुबह जब आँख खुली तो मेरे कमरे (40x30 हॉल) के सामने वाले आँगन में पानी लबालब भर चुका था, तब मैं ने अपने घर पर पढ़ाना शुरू कर दिया था ( लगभग 13 बैच में 350 से अधिक छात्रों पढ़ाता था)। बारिश दो तीन दिन लगातार हुई, आँगन में खाई होने की वजह से पानी इतना भर गया था कि मुझे लगा अब छात्रों को नहीं पढ़ा पाउँगा या सारे बैच बंद करने होंगे लेकिन सभी छात्रों ने दो-तीन दिन तक उस जमे पानी को निकालने का प्रयास किया हालाकि लगातार बारिश ने उनके इरादों को विफल कर दिया; पर उनका ये स्नेह ये समर्पण आज भी अक्षुण है और चिरस्थायी भी। आखिरकार मुझे ही उन छात्रों की जीवटता के आगे झुकना पड़ा और पढ़ाने के लिए अलग कमरा किराये पर लेना पड़ा।

इस मुफलिसी के दौर में ठिकाना एक दोस्त के यहाँ होता था जिसका कृतज्ञ हूँ मैं। यह सिलसिला चलता रहा। कभी कभी मेरा हौसला भी डगमगाया पर मैं इसमें इतना डूब गया था की इसके बगैर नींद भी नही आती थी। यही मेरा रश्क भी था और इश्क भी।   .

एक ऐसा ही और वाकया तब हुआ जब नवरात्र के दौरान दरभंगा से परीक्षा देकर लौटते हुए बरौनी से बेगुसराय (जन्म भूमि और कर्मभूमि) वापस जाने की कोई व्यवस्था नहीं थी। ट्रेन सुबह 05 बजे थी और मेरा पहला बैच 06 बजे, वहाँ से जाने का कोई साधन नहीं और जेब में मात्र 70 रूपए बचे थे। उस रात भी बारिश हो रही थी मैं लगभग 13 किलोमीटर पैदल ही चला गया। पाँव में छाले पड़ गए थे, राष्ट्रीय उच्च पथ (NH-31) पर लम्बी ट्रक सांय-सांय पास करते हुए डरा रही थी। लगभग दो घंटे पैदल चलने के बाद घर पहुंचा। सुबह छात्र अपने नियत समय पर पहुँच गए लेकिन मेरे पढ़ाने के इस जज्बे और पंचर हालत को देखकर सबों ने खुद ही छुट्टी कर ली।

पिछले साल (एक मुलाकात के दौरान पता चला) कुछ छात्रों के पास आज भी अपने पहले दिन का नोट संभालकर रखा है जो मैं ने अपनी लेखनी से थिन पेपर पर लिखा था, या जिसमें पढ़ाने से पहले मैं थॉट ऑफ द डे लिखता था। यह देखकर दिल वाकई गद-गद हो गया और मन सेंटी।

एक शिक्षक को जिस तरह का जितना मातृ-सुख या पितृ-सुख या सम्मान मिलता है, उतना ब्रह्मांड के किसी मां-बाप को नहीं मिल सकता है। आज यह लगता है कि वो छात्र ना होते तो मैं यह सब नहीं कर पाता। वाकई मैं सौभाग्यशाली था कि आप लोगों जैसे छात्र मिले। मैं आज भी उन सब छात्रों को याद करता हूँ और उनके सफल जीवन की कामना करता हूँ। आज भी जब कभी कोई भी भूले बिसरे मुझे फोन करता है तो उनकी आवाज से मेरे अन्दर का वो शिक्षक जाग जाता है। उन छात्रों का पुनः शुक्रिया जिनकी वजह से मैं कभी शिक्षक बना। इस कसौटी पर कितना सफल या असफल हुआ ये तो वही छात्र बताएंगे।

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