Friday, January 15, 2016

Team India is an Enigma?

Team India is an enigma hard to understand, a 'food' hard to digest and a TEAM hard to buy time on watching? May be a little harsh but team BCCI sorry... India is loosing its shine from one to another overseas tours!



Dhoni, hard to understand or speculate leads a team which is an unsolved puzzle. As a captain MSD has lost his aggression (Internal), charm, Glitter, Shine, temper and probably the zeal to win the match. When the 'Captain' lacks the potential, temperament and grit the "ship is bound to sink".

His body language (even after retiring from fatigue test as he had termed it) even in ODIs look like just as a professional (who is just playing to get some crores to his kitty) not as a player who plays to win or to get result.

There is no dearth of doubt that as stat suggests he is one of the most successful captain IND has ever produced till date but for me he is just a gambler who gambles and sometimes get success.

Causes of Enigma:
Is it the same Rohit Sharma? An absolute time bomb in limited-overs cricket, but an equal disaster in Tests. Is it the same Ravichandran Ashwin, the ‘best’ spinner in the world? Or is he a square turner bully? Ravindra Jadeja is unplayable at home. Very playable and in fact  become the 'target' of rival batsmen away. Or is it the same Mahendra Singh Dhoni? Unbeatable for so long, quite beatable now?Cricket is not a gamble and you can't put money every time on a horse who is injured from one foot. You can only win games by a team effort and the right kind of attitude and spirit.

Team India probably has surpassed the transition phase of Sachin-Dravid-Laxman-Ganguly era and are winning at home on an altered pitch courtesy team director Ravi Shastri.

This is such a bizarre that you call a team (RSA) give them a pitch suited to your own potential and hashtag yourself as the 'HERO' of cricket and questions the hype about pitch! Just after a month the same team goes on a tour and find it hard to defend the total of 300+ in ODIs.You become flat on flat pitches of WACA & GAWA. The same bowler who became world number one in test cricket finds it tough to even throw a DOOSRA or TEESRA. It was 2nd ODI at Gawa and once again Australia paced their pursuit to perfection.

Excuse King DHONI :
I have never heard/seen the biggest excuser than Dhoni in cricketing fraternity! Accepting the defeat is a biggest victory, admit it of you have lost! Only accepting the defeat will strive you for victory. you will not be sacked from ur captaincy just for acceptance.

This 'back bench leader' is immensely talented in readymade excuse after every single defeat either at home or overseas. You may not agree with me but listen Dhoni after any defeat you would probably get this for sure.

"The breeze was not flowing in one way, it was circulating around. It made slightly difficult for Ishant: MS Dhoni" after loosing 2nd ODI in Australia while Ishant bowled well. sometimes back when South Africa defeated he uttered "we lost the match just because there was not so much due" As a captain you can't hide ur failure via excuse. On the contrary Australian bowlers tightened the grip in last 10 overs despite some good hittings from Rahane.

Poor Chap Dhoni :
When a reporter asks you the question of hanging ur boots..take it as an alarm. The OLD Dhoni is probably missing! OOOPS he has gone slimmer during breaks and turned his grey hair black through cosmetic ink, runs even more harder between the wickets but finds it difficult to hit those most non-technical Helicopter shots and make runs since the last T-20 World cup against Srilanka.

(1stODI :18 runs on 13 balls, 2nd ODI:11 runs on 10 balls no boundary against AUS) He probably is the not "the finisher" he was known for. Team India couldn't hit a boundary in last 19 balls. No body knows what would be the right time for Dhoni to hang his boot but he doesn't really look like the OLD Dhoni on the field. Every single defeat against his name is bringing the curtains down on his career as a player. Take my word the next T20 world cup may be his last stint as a player if wind doesn't go in his favour! 



'Sir Jadeja' a constant headache :  
Whether Jadeja plays well or not Dhoni gets an excuse to rate him as the biggest all rounder to be included in team. I hardly remeber a match victory through Jaddu's clinical performance. Axar is warming the bench who could be more worthy than him. 

Ashwin is again his best mate who stood for him in both good and bad times so he is always in the team if MSD is captain. Score of players are waiting on the bench for their turn.

The team India needs a change either in attitude or in the captain. Team India was an enigma even in 90s and is still an enigma in 2016. 

This is not the good beginning for team India in New Year.

   

Tuesday, September 22, 2015

सोशल मीडिया पर कितने 'सोशल' हैं लोग?




सोशल मीडिया इंसान के जीवन का अब वो 'आठवां रंग' है जिसके बिना बाकी के सात रंग फीके लगने लगे हैं मीडिया की यह दुनिया अतरंगी और बहुरंगी है पर विडम्बना ये है कि इनमे रंग कम और रोगन अधिक है, तालियां कम और गालियां अधिक है।

आप मानें या ना मानें लेकिन (कथित रूप से) एक-दूसरे से जुड़े रहने के इस माध्यम ने इंसान को पास करने से अधिक दूर किया है, किसी को रातों-रात हीरो तो किसी को जीरो बना दिया है।

इस माध्यम ने ही जहां लखनऊ के टाइपराइटर बाबा किशन कुमार को सुरक्षा गार्ड तक मुहैया करवा दिया, वहीं अलयान कुर्दी की तस्वीर ने मानवता को झकझोर कर रख दिया, मोहम्मद अहमद को मिले विश्व भर से समर्थन ने उसे रातों-रात हीरो बना दिया।

लेकिन इस माध्यम की अपनी सीमाएं और बंदिशें भी हैं। आज मैं आपको इस सोशल दुनिया के 'अनसोशल सच' से रू-ब-रू कराता हूँ। यह जरूरी नहीं कि आप मेरी राय से सहमत हों लेकिन इस मीडिया का एक सच (पक्ष) यह भी है। इस माध्यम के बारे में आपकी भी सकारात्मक या नकारात्मक राय हो सकती है और होनी भी चाहिए।

दरअसल भारत जैसे 'बाजारू' (बाजारवाद की ओर विकासशील) देश में इस माध्यम ने आज अपना पैर 'चादर' से बाहर पसार दिया है इसलिए अब हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की रेडीमेड सूची कुछ इस तरह पढ़ी जाती है ....रोटी, कपड़ा और मोबाइल और हो भी क्यों ना जब दुनिया में ही लगभग हर तीसरे व्यक्ति के पास मोबाइल है और उस मोबाइल में उनकी 'अपनी तथाकथित एक सोशल दुनिया'। यहाँ अब लोगों के दिनचर्या का अपडेट .....खाते हुए, नहाते हुए, कॉफी पीते हुए, वायुयान से घर जाते हुए और वश चले तो "फीलिंग रिलैक्स्ड आफ्टर डूइंग पोटी" के प्रारूप में मिलते हैं।

पिछली बार हमारे खेत में काम करने वाला चंद्रशेखर भी कह रहा था भैया एक ठो हमरा भी खाता (एकाउंट) बना देते इसमें बतियाते सबसे हम भी।

यहाँ ये ध्यान रखने वाली बात है की हमारे देश में आज भी सोशल मीडिया का मतलब पहला फेसबुक और दूसरा ट्विटर ही है। विगत 27 अगस्त को इस ब्रहमांड के 'हर 7 में से एक शख्स' ने अपने दोस्त या रिश्तेदार से जुड़ने या बातचीत के लिए फेसबुक का उपयोग किया लेकिन इसकी दुनिया बड़ी है लेकिन इसकी दुनिया बड़ी है, व्हाट्सऐप, वी चैट, लाइन, टिंडर (डेटिंग ऐप), याहू मैसेंजर, फेसबुक मैसेंजर, हाइक, पिनट्रेस्ट, गूगल प्लस, टंबलर, इंस्टाग्राम और ना जानें कई जिनके नाम मुँह जबानी याद भी नहीं हैं। 140 शब्दों की सीमा में चहकने वाले माध्यम (ट्विटर) का नाम लोगों ने तब जाना जब शशि थरूर ने चहकना शुरू किया था, आज यह समाचार प्राप्त करने और देने का सबसे बड़ा माध्यम बन चुका है। ब्रेकिंग खबर यहीं से मिलती है। वैसे कभी-कभी अनुराग कश्यप जैसे लोग 'मिस कॉल देकर मीडिया की फिरकी भी ले लेते हैं', वहीं फेसबुक किसी डॉक्टर के चीट्ठे की वो दवा है जिसे लोग सोने से पहले और जागने के बाद नियमित सुबह-शाम गरोसने लगे हैं।

अब बात अपनी ही कहूँ तो पिछले सात सालों से इस माध्यम का हिस्सा हूं, इसे सीखने और जानने की कोशिश की है, इसे अपनाया है और मन ही मन यहां मौजूद लोगों और उनके क्रिया-कलाप पर एक रिसर्च भी किया है। सन 2008 में दिल्ली आया था, इससे पहले इंटरनेट और उनकी सुविधाओं का उपयोग अमावश्या-पूर्णिमा ही करने को मिलता था। दोस्त सीमित थे और उनसे जुड़े रहने के लिए (विष्णु सिनेमा हॉल के सामने दशरथ के चाय की दुकान या जी डी कॉलेज) शहर के एक चाय की दुकान और एक कॉलेज का मैदान काफी था। लाइव (शाब्दिक) बातचीत के लिए जिस जादुई माध्यम का पहली बार इस्तेमाल किया वह था (Gtalk) जी टॉक, उस समय ऑरकुट का भी क्रेज था। अधिक दोस्तों की संख्या वाले लोग 'पद्म-भूषण' या 'भारत रत्न' टाइप फील करते थे और चिरकुट टाइप स्क्रैपबुक लिखते थे जैसे उनके शब्दों से देश में सत्ता परिवर्तन या कोई बहुत बड़ा बदलाव आ जाएगा।

लुब्बोलुआब ये की यही मनोदशा बदस्तूर आज भी जारी है, ये आप भी अनुभव कर सकते हैं या कर ही रहे होंगें। सिर्फ बदलते समय के साथ सोशल मीडिया का रंग, रूप, आकार बदल गया है। नई बोतल में पुराना माल। यहां अगर आप ढंग का या सार्थक लिखते हैं तो इस कलमुँहे समाज से अनमने (बिना पढ़े) ढंग से भी "लाइक के लाले" पड़ जाएं (क्योंकि अब लोग शायद लाइक के लिए अधिक लिखने लगे हैं) या अक्सर दोस्तों को कहना भी पड़ता है भाई कुछ लिखे हैं मेरे वाल पर आकर देखना। लेकिन अगर कोई लड़की 'फीलिंग इन लव विद 'फलाना कुमार' एंड 27 अदर्स भी लिख दें' तो उनकी मित्र सूची में नहीं होने की बावजूद 400-500 लाइक तो गिर ही जाते हैं जो अगले दिन मेट्रो में ऑफिस जाते वक्त चर्चा का विषय बनता है। 'यू नो मेरे उस वाले 'पाउट' पे ना आई गॉट 300 लाइक्स' और अगले दिन उनका स्टेटस होता है फीलिंग प्राउड।

यहाँ बौद्धिकता से लबालब भरे कुछ कथित लेखक 'चेतन भगत' बनना चाहते हैं तो कुछ कथित लेखिका 'तस्लीमा नसरीन'। इस माध्यम पर मौजूद लोगों में से अधिकांशतः चाइल्ड ऐज सिंड्रोम (Child Age Syndrome)  या आइडेंटिफिकेशन क्राइसिस (Identification Crisis) जैसी जानलेवा बीमारी से जूझते मिलेंगे भले उनकी मित्र सूची ठसाठस क्यों ना भरी हो। अगर उन्होंने एक पोस्ट लिखा और 20 मिनट होने तक भी कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी तो एक बार दुबारा उसी पोस्ट को एडिट कर पुनः कुछ दोस्तों को टैग करेंगे या खुद ही लाइक कर उस पे प्रतिक्रिया लिखेंगे "क्या आप दोस्तों को मेरा फीड दिख रहा है टाइप"। कुछ अच्छे लोग भी हैं यहां बढियां लिखते हैं, जिन्हें पढ़ना अच्छा लगता है लेकिन उन्हें भी गालियां पड़ती है और वो यहां से कट लेते हैं।

पिछले एक डेढ़ सालों में इस माध्यम ने नकारात्मक लिखने और बोलने वालों के लिए सकारात्मक परिणाम दिए हैं। पिछले लोक सभा चुनाव का परिणाम इसका जीता जागता परिणाम है। पिछले कुछ दिनों में यहां वैमनष्यता बढ़ी है। गंवार, जाहिल और 'पढ़े लिखे जाहिल' का संख्या विस्फोट हुआ है। अब ऐसा मालूम होता है जैसे समाज वर्गों में बटा है "भक्त टाइप,  फैन टाइप" या "भुक्तभोगी टाइप", मेरा भी कोई एक टाइप होगा जो आप चुन लें या समझें। मुझे तो शायद ही याद हो जब आखिरी बार (बिना काम के) हमने किसी दोस्त से (अंतरंग) सबसे लंबी बातचीत सोशल मीडिया के किसी भी माध्यम से की हो। हम में से अधिकांश लोग ऐसे ही हैं।


24x7 ऑनलाइन होते हुए भी हम सबके लिए ऑफलाइन होते हैं, कोई दोस्त पिंग ना कर दे, कोई मदद ना मांग बैठे इसलिए हम अकसर ऑफलाइन हो जाते हैं। ऐसी स्तिथि से रू-ब-रू होने पर  किस एंगल से कोई किसी को सोशल और इस मीडिया को एक सोशल मीडिया कहना उचित समझेगा? दरअसल, इस माध्यम का नाम भले ही 'सोशल मीडिया' रखा गया हो लेकिन यहां आपको सबसे अधिक 'अनसोशल लोग' ही अब मिलेंगे।

इसलिए बेहतर है कि गंभीर और सार्थक बहस के लिए सोशल मीडिया का सहारा बिल्कुल ना लें वरना आपको लोग यहां बेसहारा मान बैठते हैं।

इस माध्यम में टाइप्ड होनी की आजादी है लेकिन यह टाइप्ड  होना आपको एक ऐसी दिशा में ले जा रहा है जहां से 'घरवापसी' मुश्किल है। इसलिए लिखिए, पढ़िए, फॉलो कीजिये लेकिन टाइप्ड होने से बचिए।

Sunday, September 13, 2015

हिंदी हम कहलाते हैं !














माँ को मम्मी, बापू को डैड, 
नमस्ते भी हो गया है हाय,
अंग्रेेजी की बैशाखी से टुकुड़धुम  चल पाते हैं
हिंदी का स्वांग रचाते हैं, हम हिंदी कहलाते हैं। 

उधार लिए शब्दों से हम सब बातचीत कर पाते हैं 
एक वाक्य में अन्य भाषा के बस पांच शब्द घुसियाते हैं 
हिंदी का ढोंग रचाते हैं, हम हिंदी कहलाते हैं।

दिन, दिवस और पखवाड़े हम उनके लिए मनाते हैं
अस्त हो रहा जिसका 'सूरज', हम उसको दिया दिखाते हैं    
हिंदी का ढोंग रचाते हैं, हम हिंदी कहलाते हैं। 

गूगल हुआ अब माई-बाप, 
यूँ साहित्य में लालित्य होगी अब बीत चुकी बात 
सुनो भईया,
नौकरी पाने को हम अब 'रिज्यूमे' बनवाते हैं
गिने चुने शब्दों से खूब अपनी धौंस जमाते हैं
हिंदी का ढोंग रचाते हैं, हम हिंदी कहलाते हैं। 

सिनेमा जगत भी अब डबिंग की कमाई खाते हैं 
पब्लिक से जब अंगरेजी में वो फटर-फटर बतियाते हैं
हिंदी का ढोंग रचाते हैं, हम हिंदी कहलाते हैं। 

फैलाते हुए आतंक 
हिंदी के ये भुजंग 
का, को, की, में, पे, पर और कहूँ तो यमक 
पर लोगों को कनफुजियाते हैं
हिंदी पर लगाके यूँ  ग्रहण 
रहबर ही अब इसका मसान बनाते हैं 
हिंदी का ढोंग रचाते हैं, हम हिंदी-हिन्द कहलाते हैं। 

Friday, September 11, 2015

चुनाव के बाजल पीपहू ; जीततै पार्टी हारभो तोयं



बिहार में विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा कर दी गई है। अब शुरू होगा ‘बिहार, ईवीएम (बैलेट), वोट और बाटली का असली खेल। सुना है राजनीति शब्द की उत्पत्ति यहीं से हुई है, चाणक्य से लेकर अशोक तक इसका साक्षात प्रमाण हैं वैसे इस ‘डिजिटल इंडिया‘ वाले युग में यहां पांच साल का नाक बहता (नेटा चूता) बच्चा भी इस शास्त्र में निपुण है।

वो रिक्शा वाला हो या ठेला वाला या फिर फेरी वाला या फिर ट्रेन में सफर कर रहा एक व्यक्ति, अगर आप गलती से भी राजनीति में एक बिहारी से टकराए तो एक आध घंटे तो वो बिना सांस लिए आपको ज्ञान पेल (बघार) सकता है।

बिहार चुनाव का पीपहू (बिगुल) बज चुका है, चुनावी रण में शंखनाद के लिए सभी पार्टियों ने कमर कस ली है। लालू भी मुरेठा कस चुके हैं और उनके चड्डी फ्रेंड नीतीश फारा (किसी भारी-भरकम काम को करने से पहले कमर को गमछे से बाँधना)।

हम सब के प्रधानमंत्री मोदी भी दो-तीन चुनावी रैलियों में एक-डेढ़ शब्द जैसे ‘कैसन बा’ बोल आए हैं, लेकिन डर लगता है कि लोग इसे चुनावी जुमला ना समझ बैठें !

लालू यादव ने चुनाव की तिथि घोषित होने के बाद इसे ‘देश का चुनाव’ बता दिया, हो भी क्यों ना, एक तरफ नीतीश (बिहारी DNA पर मोदी की प्रतिक्रिया से लगी तितकी के बाद) इसे बिहारी अस्मिता से जोड़कर भुना रहे हैं।

लगभग 10.41 करोड़ आबादी वाले इस राज्य में 6.68 करोड़ मतदाता हैं जिन्हें अपने लिए राज्य का एक बेहतर मुखिया चुनना है। ऐसा कहा जाता है कि साक्षरता एक सरकार चुनने में अहम भूमिका निभाती है ऐसे में 2011 में जारी सेंसस रिपोर्ट के मुताबिक 61.80 फीसदी जनता को एक अहम किरदार निभाना होगा।

यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि बिहार विधान सभा चुनाव “NDA का DNA” टेस्ट है। एक ऐसा डीएनए टेस्ट जो प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के आने शासन काल की दशा और दिशा दोनो तय करेगा वहीं दूसरी ओर बिहार की राजनीति में एक नया भोर (सुबह की किरण) लेकर भी आ सकता है।

दिमाग का रायता कर चुके समाचार चैनल पर प्राइम टाइम यूजर्स को इंद्राणी मुखर्जी और लाल साड़ी वाली राधे  से थोड़ी राहत मिल जाएगी और लिट्टी-चोखा टाइप कुछ नया देखने को भी मिल जाएगा। कुछ दिनों के लिए ही सही मूड ‘झाल-मुरही और कचड़ी‘ टाइप हो जाएगा और ‘इंडिया’ लुटियन दिल्ली और मेट्रो शहर से बाहर निकलकर भारत के एक राज्य बिहार के सुदूर गांव में किराए पर रहेगा।

जहां अब रोज जदयू-राजद, भाजपा और बसपा टीआरपी की होड़ में हिन्दी मीडिया के ‘सूत्र‘ (कभी पता नहीं लगने वाला/बिग बॉस की तरह ना दिखने वाला) के हवाले से दो चार सीट आगे पीछे रहेंगे, हो सकता है कड़ी टक्कर भी देते दिखें। आप घबराइएगा नहीं ये टक्कर आपको दिग्भ्रमित करने के लिए भी हो सकता है… बस प्राइम टाइम में चैनल बदलते रहिएगा और हर एक मिनट के बाद पांच मिनट का ब्रेक ले लीजिएगा और देखते रहिएगा मनपसंद कार्यक्रम ‘धैलो लाठी कपाड़ पर‘।

कुछ चैनल भाजपा को जिताएंगे तो कुछ ‘ढाई टांग‘ वाले गठबंधन को। आप सब अपनी सीट पर जमे रहिएगा और प्राइम टाइम भी देख सकते हैं, वैसे प्राइम टाइम देखकर आप में से बहुत कम लोग वोट देंगे। हो सकता है इससे कन्फ्यूजन बहुते क्लियर ना हो पाए तो किसी को सीट पर बैठाने के लिए विवेक का इस्तेमाल करिएगा। वैसे भी जन-धन वाले अकाउंट में इस बार 1.25 लाख करोड़ वाला कुछ झाड़न-झुंडन तो आ ही जाएगा।एक आध बार पासबुक सिरहौना से गोड़थारी (एने-ओने) या हिला-डोला कर देख लीजिएगा। क्या पता इस बार वाला ‘चुनावी जुमला’ ना हो वैसे गया के चुनावी रैली में आपका उन्माद तो यही कह रहा था।

इस राज्य में जातिवाद है और यह लोगों की नसों में घुसियायल (भरा) है, पिछली बार चुनाव में कहा गया कि बिहार जातिवाद से ऊपर उठ गया, राज्य को इतना बड़ा मैंडेट मिला है लेकिन यह महज एक भ्रम था। जब तक जातिवाद की राजनीति है यह अंदाजा लगाना मुश्किल होगा कि ऊंट किस करवट बैठेगा। यादव वोट पर लालू वर्षों से कुंडली मारे बैठे हैं लेकिन पिछले दस साल से बिहार में हाशिए पर चल रहे राजद के लिए जनता पार्टी का ढनमनाता गठबंधन एक नया विश्वास लेकर आया है, नीतीश के साथ आना उनके लिए फायदेमंद साबित होगा। वहीं कुर्मी, कोयरी और मुस्लिम वोट हर चुनाव में जदयू को ही जाता है वहीं भूमिहार और सवर्ण वोट पर कमोबेश भाजपा का कब्जा होगा, कुल जमा दंगल जबरदस्त होने वाला है।

अभी हाल में एक फिल्म मांझी आयी थी और बीच में बिहार में जीतन राम मांझी कुछ दिनों के लिए मुख्यमंत्री भी बन पाए थे। मुसहर समुदाय का वोट मांझी भी ले जा सकते हैं, वैसे यह फिल्म तो नहीं चली लेकिन बिहार की राजनीति में मांझी लोग जाग गए होंगे लेकिन सिनेमा देखकर तो कतई नहीं!

16वीं लोक सभा चुनाव में भाजपा को मिले विशाल जनमत में वोटों का कुल प्रतिशत 31 फीसदी था। वैसे बहुत सारे बिहारी रोजी रोटी के चक्कर में दिल्ली से दुबई तक ढेंगराए (पसरे) हुए हैं सवाल यह भी है कि क्या वो वोट देने जाएंगे। नहीं भी जाएंगे फिर भी वोटिंग होगी और जीत भी किसी ना किसी पार्टी की होगी। मौका मिले तो जाइएगा, वैसे भी दीपावली, छठ, मुहर्रम और बकरीद सब उसी समय है, हमहूँ सामान सरियाना (समेटना) शुरू कर दिए हैं, टिकट हो गया तो जरूर जाएंगे।

लोक सभा चुनाव के काले धन वाले ‘चुनावी जुमलों’ के बाद मोदी सरकार ने बिहार के लिए (चाइये कि नहीं चाइये टाइप इस्टाईल में) 1.25 लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा की है वहीं नितीश इसे पुराने पैकेज की री-पैकेजिंग बता रहे हैं और एक नए विजन के साथ 2.5 लाख करोड़ की घोषणा कर दी है। अब यह देखना भी दिलचस्प होगा कि कुल जमा 3.75 लाख करोड़ से बिहार का कितना विकास होता है, ये ‘क्योटो बनेगा या अगले पांच साल में ‘बनने वाला काशी‘।

बिहार की सड़कें बेहतर हुई हैं, गांव में भी बिजली लगभग 17-18 घंटे रहती है,  (पहले आता नहीं था (जब चप्पल उल्टा करके मनाते थे कि जल्दी आ जाए मैच तो छूट गया) अब जाता नहीं है। शिक्षा मित्रों की बहाली भी हुई है लेकिन शिक्षा व्यवस्था अब भी जस की तस है। शिक्षा व्यवस्था में बहुत सुधार की गुंजाइश है, देश के भविष्य का वर्तमान सुधारने वाले काबिल लोगों की कमी है। 2000 छात्रों पर चार पांच शिक्षक मिला जाएंगे वो भी पढ़ाई लिखाई में नीपल-पोतल (जीरो बटे सन्नाटा) मिलेंगे। एक आध बार हम भी स्कूल में पढ़ाने गए थे जानकर दुख हुआ कि बढियां मास्साब नहीं हैं, छात्र-छात्राओं को स्कूल जाने के लिए साइकिल भी मिला है वो जाते भी हैं। शिक्षा व्यवस्था में बहुत सुधार की गुंजाइश है यह राज्य देश के किसी भी राज्य को हर मामले में पीछे छोड़ सकता है। अभी भी इस राज्य से पलायन कम नहीं हुआ, भले आपको इस धरती पर एलियन मिले ना मिले इस ब्रह्मांड के किसी भी भूभाग में बिहारी जरूर मिलेगा।

गॉंव मुहल्ले में पॉलिथीन वाले शराब के ठेकों ने बिहार के युवाओं को असामयिक मौत की तरफ धकेला है, पिछले चार-पांच सालों में युवाओं में शराब पीने की लत बढ़ी है, यह किसी ‘सूत्र’ नहीं आँखों-देखी और कानों-सुनी बात कह रहा हूँ। पिछले साल गाँव गया था तो कई युवाओं के मौत की खबर सुनने को मिली और वजह शराब थी। शासन व्यवस्था सभी राज्यों की लगभग एक जैसी ही होती है, बिहार अपवाद नहीं है।

दीपावली से पहले परिणाम भी आएगा और बिहार वासियों को मुर्गा छाप छुरछुरिया और फुलझड़ी (पटाखा) छोड़ने का मौका भी मिलेगा लेकिन भोट करिएगा तभी तो।

वैसे एगो राज की बात बताएं श्श्श…. बिहार की राजनीति में साक्षर सभी हैं लेकिन चुनाव के समय पौआ और पॉलिथीन के चक्कर में पढ़लो-लिखल निरक्षर हो जाएं।

अभी के लिए इतना ही। देखिये अगली बार केक्कर सरकार।

Friday, September 4, 2015

एक शिक्षक होने का सुख !!!

2006 में अपने कमरे में छात्रों को पढ़ाते हुए 
बीते सोमवार सप्ताहांत की छुट्टी में कमरा साफ करते हुए कुछ पुरानी तस्वीरें हाथ लगी, कुछ यादें जिसे सहेज कर रखने की आदत है मेरी।

सालों पहले कभी डायरी लिखने की आदत थी, उनके पन्ने पलटकर जब देखने का मौका मिला तो लगा जिंदगी के बेहतरीन पलों को पीछे छोड़ मैं भी 'शहर' हो चला हूँ।

मध्यमवर्गीय परिवार से होने की वजह से छात्र जीवन की अपनी कुछ सीमाएं थी। उन सीमाओं के साथ वाली पगडंडियों पर चलकर रोजगार के सिलसिले में दिल्ली आ गया।

जीवन के कई बसंत बीत गए। कुछ चीजें ऐसी हैं जो आज भी दिल और मन को रोमांचित कर देती है, एक शिक्षक होना और "शिक्षक होने का सुख" इसी कड़ी में जीवन के साथ जुड़ गया, जिसकी स्मृतियां अविस्मरणीय हैं। हालांकि ये सफर मेरे लिए आसान नहीं रहा है पर अतीत चाहे कितना ही संघर्षशील क्यों ना हो उसकी स्मृतियां सदैव मधुर होती है।

उन सभी छात्रों का शुक्रिया जिनकी वजह से मैं शिक्षक बन पाया, मैं एक अच्छा बोलक्कर बन गया और अटूट निश्छल प्रेम और स्नेह मिला। पता नहीं क्यों लेकिन आज उनके बारे में लिखने का दिल कर रहा है। यादों के साये सच में साथ ही होते हैं।

मेरे सबसे पहले शिक्षक मेरी माँ और दादा (बाबूजी) हमेशा से मेरे प्रेरणास्त्रोत रहे हैं जिन्होंने मुझे एक बेहतर इंसान बनाने के लिए अपनी जिंदगी खपा दी। उनको ये दिन समर्पित। इस सफर में मुझे लगभग 6 सालों तक एक शिक्षक के जीवन जीने का सौभाग्य मिला। इसकी भी कहानी एक सामान्य किसान परिवार के लड़के के लिए किसी रोमांच से कम नही है।

NDA की फाइनल परीक्षा में सफल ना होने की वजह से दादा ने डांटकर कहा अब आप अपनी पढ़ाई का जिम्मा उठाओ। ट्यूशन पढ़ाना उस समय मेरी मजबूरी थी। 2002 में BSA की 24 इंच वाली साइकिल चलाकर 250 रूपए के लिए पढ़ाया वो पहला होम ट्यूशन और वो छात्र याद आ रहा है। मैं उस छात्र का सबसे बढ़िया दोस्त था, वह मेरे साथ खूब मस्ती करता था और यहीं से शुरू हुआ मेरे शिक्षक बनने का सफर। कालांतर में इस जीवन से प्रेम हो गया। इसे खूब जिया, खूब पढ़ाया, (17-18 की उम्र में ही ) बच्चों से खूब सम्मान पाया।

दादा की नसीहतें साथ में थी की शिक्षा दान की चीज है सो जहाँ तक संभव हो सका इस आर्थिक युग में इसे दान करने से गुरेज नही किया। उस आर्थिक रूप से विपन्न छात्रों की प्रतिभा का आज भी कायल हूँ।

होम ट्यूशन का सफर एक कोचिंग तक पहुँच गया था, छात्रों की संख्या बढ़ गयी थी और जिम्मेदारी का भाव भी। यहां से मेरे जीवन में एक नया मोड़ आया जब मेरा चयन BHU में फ्रेंच भाषा से स्नातक के लिए हुआ था, लेकिन किसी खास वजह से दाखिला नहीं ले पाया। मेरे छात्र मेरे इस चयन पर दुखी थे लेकिन जब उन्हें पता चला कि मैं नहीं जा रहा हूँ तो उनके चेहरे की खुशी मेरे दाखिला ना ले पाने के गम पर भारी पड़ गया।

आज जब नयी पीढ़ी के छात्र-शिक्षक संबंध बदल रहे हैं। शिक्षकों की गुणवत्ता में बदलाव आ रहे हैं तो मुझे वो वाकया याद आ रहा है जब  वर्ष 2005-06, अगस्त माह की 13 तारीख थी, पूरी रात जोरदार बारिश हुई, सुबह जब आँख खुली तो मेरे कमरे (40x30 हॉल) के सामने वाले आँगन में पानी लबालब भर चुका था, तब मैं ने अपने घर पर पढ़ाना शुरू कर दिया था ( लगभग 13 बैच में 350 से अधिक छात्रों पढ़ाता था)। बारिश दो तीन दिन लगातार हुई, आँगन में खाई होने की वजह से पानी इतना भर गया था कि मुझे लगा अब छात्रों को नहीं पढ़ा पाउँगा या सारे बैच बंद करने होंगे लेकिन सभी छात्रों ने दो-तीन दिन तक उस जमे पानी को निकालने का प्रयास किया हालाकि लगातार बारिश ने उनके इरादों को विफल कर दिया; पर उनका ये स्नेह ये समर्पण आज भी अक्षुण है और चिरस्थायी भी। आखिरकार मुझे ही उन छात्रों की जीवटता के आगे झुकना पड़ा और पढ़ाने के लिए अलग कमरा किराये पर लेना पड़ा।

इस मुफलिसी के दौर में ठिकाना एक दोस्त के यहाँ होता था जिसका कृतज्ञ हूँ मैं। यह सिलसिला चलता रहा। कभी कभी मेरा हौसला भी डगमगाया पर मैं इसमें इतना डूब गया था की इसके बगैर नींद भी नही आती थी। यही मेरा रश्क भी था और इश्क भी।   .

एक ऐसा ही और वाकया तब हुआ जब नवरात्र के दौरान दरभंगा से परीक्षा देकर लौटते हुए बरौनी से बेगुसराय (जन्म भूमि और कर्मभूमि) वापस जाने की कोई व्यवस्था नहीं थी। ट्रेन सुबह 05 बजे थी और मेरा पहला बैच 06 बजे, वहाँ से जाने का कोई साधन नहीं और जेब में मात्र 70 रूपए बचे थे। उस रात भी बारिश हो रही थी मैं लगभग 13 किलोमीटर पैदल ही चला गया। पाँव में छाले पड़ गए थे, राष्ट्रीय उच्च पथ (NH-31) पर लम्बी ट्रक सांय-सांय पास करते हुए डरा रही थी। लगभग दो घंटे पैदल चलने के बाद घर पहुंचा। सुबह छात्र अपने नियत समय पर पहुँच गए लेकिन मेरे पढ़ाने के इस जज्बे और पंचर हालत को देखकर सबों ने खुद ही छुट्टी कर ली।

पिछले साल (एक मुलाकात के दौरान पता चला) कुछ छात्रों के पास आज भी अपने पहले दिन का नोट संभालकर रखा है जो मैं ने अपनी लेखनी से थिन पेपर पर लिखा था, या जिसमें पढ़ाने से पहले मैं थॉट ऑफ द डे लिखता था। यह देखकर दिल वाकई गद-गद हो गया और मन सेंटी।

एक शिक्षक को जिस तरह का जितना मातृ-सुख या पितृ-सुख या सम्मान मिलता है, उतना ब्रह्मांड के किसी मां-बाप को नहीं मिल सकता है। आज यह लगता है कि वो छात्र ना होते तो मैं यह सब नहीं कर पाता। वाकई मैं सौभाग्यशाली था कि आप लोगों जैसे छात्र मिले। मैं आज भी उन सब छात्रों को याद करता हूँ और उनके सफल जीवन की कामना करता हूँ। आज भी जब कभी कोई भी भूले बिसरे मुझे फोन करता है तो उनकी आवाज से मेरे अन्दर का वो शिक्षक जाग जाता है। उन छात्रों का पुनः शुक्रिया जिनकी वजह से मैं कभी शिक्षक बना। इस कसौटी पर कितना सफल या असफल हुआ ये तो वही छात्र बताएंगे।

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